
प्रिय पाठकों मैं एक सीधा-साधा ठेठ देहाती ठहरा। बचपन से ही गाँव की मिट्टी में खेला और और पला बढ़ा हुँ। गाँव की संस्कृति और रहन-सहन मेरे अंदर कूट-कूट कर भरी पड़ी है। पढ़ाई-लिखाई नाम मात्र का किया और ज्यादा वक्त खेतों और खलिहानों में व्यतित किया। लेकिन बेगारी और गरीबी ने मजबूर का दिया गाँव छोड़ने को। अपने छोटे से दिल में बड़ा सा अरमान लेकर मैं चल दिया शहर की ओर्। शुरू-शुरु में तो काफी दिक्कतें आई, लेकिन धीरे-धीरे मैं भी शहरी आव-भाव और संस्कृति में सराबोर हो गया। इन सब के बीच कभी-कभी बस मुझे याद आ जाती थी, गाँव की हरियाली और लोगों का प्यार। लेकिन समय के मार ने मानों मुझे अपंग बना दिया हो। मैं चाहकर भी नहीं जा सकता था, अपने गाँव की ओर्।
पिछले कुछ सालों में मैं कई शहरों में गया, लेकिन इन सभी जगहों पर सबसे ज्यादा चिंतित मुझे वहाँ के पहनावे और संस्क्ड़ड़ति ने किया। आज जिस तरह से फैशन का जादू लागों के सिर चढ़ कर बोल रहा है, खासकर (लड़कियों) वह वास्तव में चिंता का विषय है। शहरी पहनावे को देख कर शायद भगवान भी शरमा जाए, उन्हें भी अपनी कृति पर शर्म आती होगी।
मैं तो कहता हुँ, भैइया अगर जाड़े का मौसम न होता तो शायद नग्न तन भी देखने को मिल जाता। जहाँ तक मेरा विचार है, इस तरह के फैशन को सबसे ज्यादा लड़कियों ने ही अपनाया है। आज लड़कों को यह तय करना मुश्किल हो जाता है, कि कौन-सा कपड़ा खरीदें, क्योंकि लड़कियों ने कुछ छोड़ा ही नहीं है।
शहर में भविष्य का आगमन भी हो चुका है। लोगों को अब ना तो शीतलहर का डर है और न ही मोटे-मोटे कई कपड़े पहनने का झंझट है। अब तो वो आजाद है, पहनने को वो सारी वस्त्र जो उनके शरीर को ढ़कने की अपेक्षा खुला ज्यादा रखता है।
ऐसे में मैंने भी अपना रास्ता साफ करते हुए काम से छुट्टी ले ली है, और कुछ दिनों के लिए ही सही मगर ऐसी चिंता से मुक्ति तो मिलेगी। आपलोगों से भी यह अपील है कि अगर शहर की संस्कृति और कला को संचित करना है, तो तबियत से एक कदम आगे बढ़ाए।
विकास कुमार
पिछले कुछ सालों में मैं कई शहरों में गया, लेकिन इन सभी जगहों पर सबसे ज्यादा चिंतित मुझे वहाँ के पहनावे और संस्क्ड़ड़ति ने किया। आज जिस तरह से फैशन का जादू लागों के सिर चढ़ कर बोल रहा है, खासकर (लड़कियों) वह वास्तव में चिंता का विषय है। शहरी पहनावे को देख कर शायद भगवान भी शरमा जाए, उन्हें भी अपनी कृति पर शर्म आती होगी।
मैं तो कहता हुँ, भैइया अगर जाड़े का मौसम न होता तो शायद नग्न तन भी देखने को मिल जाता। जहाँ तक मेरा विचार है, इस तरह के फैशन को सबसे ज्यादा लड़कियों ने ही अपनाया है। आज लड़कों को यह तय करना मुश्किल हो जाता है, कि कौन-सा कपड़ा खरीदें, क्योंकि लड़कियों ने कुछ छोड़ा ही नहीं है।
शहर में भविष्य का आगमन भी हो चुका है। लोगों को अब ना तो शीतलहर का डर है और न ही मोटे-मोटे कई कपड़े पहनने का झंझट है। अब तो वो आजाद है, पहनने को वो सारी वस्त्र जो उनके शरीर को ढ़कने की अपेक्षा खुला ज्यादा रखता है।
ऐसे में मैंने भी अपना रास्ता साफ करते हुए काम से छुट्टी ले ली है, और कुछ दिनों के लिए ही सही मगर ऐसी चिंता से मुक्ति तो मिलेगी। आपलोगों से भी यह अपील है कि अगर शहर की संस्कृति और कला को संचित करना है, तो तबियत से एक कदम आगे बढ़ाए।
विकास कुमार