सोचा था, जब मैं वापस गाँव जाऊँगा।
नई स्फूर्ति और ताजगी को गले लगाऊगाँ।
तपती धूल में लोटपोट होकर पोखर में नहाऊगाँ।
नन्हें बच्चों और गईयो-बछडियों से मन बहलाऊगाँ।
खाली पैर खेतों में चलते हुए मौसम का मज़ा उठाऊगाँ।
वहीं पुरानी साइकल को टूटी सडकों और पगडण्डियों पर दौडाऊगाँ।
दोस्तों, साथि्यों सगे सम्बधियों से अपने को मिलावाऊगाँ।
अपनी समझ और बुद्धि का लोहा मनवाऊगाँ।
कुछ समय खुली आसमान के नीचे खाट पर बिताऊगाँ,और सपनों कि दुनियाँ में खोकर सो जाऊगाँ।
सोचा था, अपने प्यार को गले लगाऊगाँ।
उससे मिलकर खुशी के दो बूँद आसूँ बहाऊगाँ।
गाँव की जीवनशैली और संस्कृति में डूब जाऊगाँ।
शहर की भागदौड से अपने को आराम पहुँचाऊगाँ।
लेकिन इतना सोचकर जब मैं गाँव आया।
सारा कुछ बदला-बदला सा पाया।
विकास कुमार
The worldwide economic crisis and Brexit
9 years ago
