Wednesday, August 25, 2010

कल्माडी की कामयाबी।


दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल के सफलतापूर्वक होने और ना होने की संभावनाओं के बीच बना पूल कब धराशायी होकर गिर जाये इसकी आशंका हम सभी को है। इस खेल के शुरु होने से पहले ही जो गेम सुरेश कल्माडी एण्ड ग्रुप ने खेला है, वह जगज़ाहिर है। देश के गौरव और शान का प्रतीक राष्ट्रमंडल खेल आज इसी देश के लिये चुनौती और आन का सवाल बन गया है।
गौरतलब है कि ऐसे आयोजन को कराने के लिये विस्तृत और लंबी नीति की आवशयक्ता होती है। राष्ट्रमंडल खेल की मेजबानी का टाँस जितकर आयी बीजेपी सरकार मैदान में आने से पहले ही बोल्ड हो गयी। और अब कांग्रेस सरकार ग्राउंड में आने के बजाये गीले पिच को सुखाने में लगी हुई है।
इधर अभी भी कई स्टेडियमों में आधे से अधिक काम का होना बाकी है। ऐसे में बारिश का बार-बार होना काम को पूरी तरह से बाधित कर रहा है। खेल शुरु होने के लिये कम होता हर एक दिन अधिक से अधिक सवालों को पैदा कर रहा है।
मगर दूसरी तरफ इन सवालों के पैदा होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है! क्योंकि राष्ट्रमंडल खेल समीति से अध्यक्ष सुरेश कल्माडी के लिए हर सवाल का सिर्फ और सिर्फ एक ही जबाव है "आप चिन्ता ना करे, सबकुछ समय पर हो जायेगा"। कल्माडी जी अगर सबकुछ समय पर ठीक-ठाक हुआ रहता तो आज आपका अधिकार आपके समय के सामने दम नहीं तोड़ता। जरुरत नहीं पड़ती फिर से एक नई टीम का गठन करना।
खैर, चाहे अब जो कुछ भी हो हम सभी को मिलकर अपने राष्ट्र के गौरव को बचाना है, एक भारतीय होने का अधिकार निभाना है।
Vikas kumar

Sunday, August 15, 2010

I need the same freedom.


I am very glad to celebrate this 63rd Independence Day but very sad to remember my childhood days. As this is the law of nature we cross our childhood age and become young. All the responsibilities and formalities come together. At this stage where we keep ourselves busy for arranging bread and butter for survive.

But despite of all these whenever 15th August comes it compels to go in flash back. I would like to describe 15th August celebration during childhood days. 15th August a day, this describes the long salute of great freedom fighters of our country ‘India”.

When I was in primary school it was great excitement to celebrate 15th August. Because, this was the only occasion when I get chance to be in front of audiences with a well prepared speech and a grand salute of Indian flag. The national anthem and the national song which is sung by a group of students was enough to call the crowd towards school. Dramas, cultural programs, national songs, and dance these all performance compelled to stay long in school.

But, gradually I became young and I lost my excitement and the opportunity to celebrate 15th August like that. Are such excitement and enjoyment is possible today this is the question which never gets any answer from any side.

With this great memory wish u a very happy Independence Day.

Monday, April 12, 2010

यादों की रात

अभी भी याद आती है, वो रात,
जब मिले थे हम दोनों एक जगह एक साथ।
पहली मुलाकात थी, अजीब सी बात थी,
तुम्हारा बार-बार शर्माना और शर्माकर नज़रे चुराना,
बना रहा था मुझे एकदम पागल दिवाना।
मैं कुछ देर यूं ही तुम्हे निहारता रहा,
तेरी आँखों में अपना प्यार भरता रहा।
हमने उसी रात एक होने और उम्र भर साथ बिताने का वादा किया था,
बरसों से मन में दबे हुए प्यार का खुलासा किया था,
तुम मेरी हो और बस मेरी ही रहोगी कुछ ऐसा ही साझा किया था।
मगर अब तो बस तेरी यादें हैं मेरे साथ,
न जाने छोड़कर मेझे अकेले चली गई किस दिवाने के साथ!
अभी भी याद आती है वो रात, वो मुलाकात………

विकास कुमार

Friday, March 12, 2010

ख़ाकी से बेखौफ अपराधी

राजधानी दिल्ली सुरक्षा के लिहाज से अन्य राज्यों के मुकाबले बेहतर और सुरक्षित मानी जाती है। यहाँ के प्रशासन की चाक-चौबंद कि चर्चा पूरे देश में होती है। मगर पिछ्ले कुछ महीनों से जिस तरह से राजधानी में लूटेरों, चोर और झपटमारों ने उत्पाद मचा रखा है, उससे यह स्पष्ट होता है कि प्रशासन कहीं न कहीं ढीली पड़ गई है। "आपके लिए, सदैव आपके साथ" का नारा लगाने वाली दिल्ली पुलिस बदमाशों और गूंडों के आगे पूरी तरह से लाचार और बेबस साबित हो रही है। खुलेआम कत्ल हो रहे हैं, बसों में जबरन यात्रियों को लूटा जा रहा है, महिलाओं के साथ बदसलूकी और जबरदस्ती किया जा रहा है, सड़क पर चलती हुई महिलाएं झपटमारों का शिकार हो रही हैं, कारों और घरों में चोरी हो रही है। प्रशासन के लाख कोशिशों के बावज़ूद इनमें कोई कमी नही दिख रही है।
गौरतलब है कि, अपराधियों द्वारा इन सारी वारदातों को अंजाम दिन के उजाले में दिया जा रहा है और प्रशासन है कि गहरी निंद में सोई हुई है। दरअसल अपराधियों द्वारा दिए दिए जा रहे इन अंजामों और घटनाओं के पीछे का कारण उनका खाकी वर्दी से कम होता खौफ और प्रशासन का उनके प्रति लचीला व्यवहार है। अभी हाल ही में दक्षिणी दिल्ली के लाजपत नगर में साई पिकेट पर बदमाशों द्वारा हवलदार के हाथ से वायरलेस का छीनना और फिर मजे से चलता बनना प्रशासन के ढीले हाथ को दर्शाता है। बदमाश कार में सवार थे, फिर भी न तो पुलिस उसका पीछा कर पाई और ना ही गाड़ी का नंबर नोट कर पाई। दूसरी घटना आनंद विहार इलाके कि है जिसमें एक कार सवार युवक बाईक सवार तीन युवकों का पीछा कर रहे थे। उनके बीच गोली चली और सड़क के किनारे खड़े एक व्यक्ति के पांव में जा लगी। हर रोज इस तरह के अनेकों घटनाओं से दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था कि पोल तो खुल ही रही है साथ ही साथ पुख्ता सुरक्षा के दावों पर भी दाग लग रहा है।
यह बात सोचने योग्य है कि, आगामी कुछ ही महीनों बाद दिल्ली में राष्ट्र्मंडल खेलों का आयोजन होना है। और अगर इसी तरह से अपराधियों के हौसले बुलंद रहे तो यह कहना गलत नही होगा कि अपराधी प्रशासन के साथ-साथ दिल्ली सरकार के साख को भी हशिए पर न रख दे।
विकास कुमार

Wednesday, February 24, 2010

दिल्ली का दर्द

दोस्तों गर्व से कहता हूँ कि मैं दिल्ली में रहता हूँ। मगर कभी-कभी दिल्ली के दर्द से रोता भी हूँ। वैसे दर्द तो रोज देती है ये, मगर झलने का आदि हो चुका हूं। हाँ, मेरे इस दर्द कि दवा उपलब्ध तो है, मगर उसका ठीक तरीके से संचालन और उपयोग नही है। यह भी मानता हूं कि मेरे साथ दिल्ली के अनगिनत लोग इस दर्द से पीड़ित हैं। मगर पारिवारिक जिम्मेंदारी और काम का बोझ उस दर्द को भी दबा देते हैं। आप खुद ही देख लीजिए न सुबह-सुबह उठकर तैयार होता हूँ। काम पर जाना होता है, तो पेट में भी कुछ डालना जरुरी होता है। घर से निकलते ही रेलगाड़ी कि तरह स्पीड पकड़ता हूँ। डर लगता है और चिंता भी होती है कि कहीं बस ना निकल जाए। कंधे पर बैग और हाथ में फाइल लेकर दिल्ली के बसों में चढना चुनौती से कम नही है। किसी तरह बस में सवार तो हो ही जाता हूं। मगर अंदर जो हालत होती है,उसे लिखने में भी दर्द महसूस हो रहा है। बस के अंदर भीड़ में दबे खुद को जितना निकालने का प्रयास करता हूं उतना ही अंदर चला जाता हूं। आखिरकार किसी तरह जगह पाकर साइड में खड़ा हो ही जाता हूं। कभी-कभी कुछ ऐसे भी लोग मिलते हैं जो इस हालत में भी मलहम कि जगह जगह और दर्द देकर चले जाते हैं। भीड़ का फायदा उठाकर कितनों के जेब साफ कर जाते हैं।
दिल्ली में ट्रैफिक जो दर्द देता है पूछिए मत। बस में घंटो एक पैर के सहारे खड़ा रहना पड़ता है। इसकी वजह से आँफिस लेट पहुँचने पर बाँस का दर्द अलग सहना पड़ता है। सच कहूं तो जितने दर्द यहाँ झलने पड़ते हैं उतनों को लिखने में भी हाथ में दर्द शुरु हो जायेगा। मगर दर्द है कि लिखने को मजबूर किया जा रहा है। ए0 टी0 एम से पैसे निकालने हों, ट्रेन कि टिकट कटानी हों, मडर डेयरी से दूध लाना हो, भंडारे में प्रसाद खाना हो, बैंको में अकाउन्ट खुलबाना हो, सर से साइन करवाना हो, हाँस्पीटल में ईलाज करवाना हो, पुलिस थाने में F IR लिखवाना हो, मेट्रो में मन बहलाना हो, स्कूलों में एडमीशन करवाना हो, गाड़ियों में पेट्रोल डलवाना हो, पीने का पानी लाना हो, होटलों में खाना खाना हो, गैस सिलेण्डर भरवाना हो, बिजली-पानी आदि का बिल चुकाना हो। सभी जगह दर्द ही दर्द है चाहे वह लाईन में खड़े होने का दर्द है, बात-विवाद का दर्द है, घूसखोरी और धौस का दर्द है।
दिल्ली में इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए ज़रुरी है कि बिना किसी डाक्टर का इंतजार किए हमें इलाज खुद शुरु कर देनी चाहिए। ताकि हमें भी अपनी काबिलियत पर गर्व हो और दूसरों को असलियत का पता चले।

विकास कुमार।

Wednesday, January 27, 2010

तौबा यह मतबाली चाल

सेंडिल के नोकिले हील का ठक-ठक सुनकर दिल धक-धक करने लगता है। उसके हर एक कदम के बाद धड़कने और तेंज हो जाती है। आंखो मे ललक और चेहरे कि दमक अचानक बढ जाती है। धड़कते दिल और दमकते चेहरे के बीच लचकती कमर गजब का असर छोड़ रही थी। फिर क्या था इस असर से मेरा सफर और रोमांचित होता जा रहा था। कई बार तो मेरे कदम उसके एकदम समीप होता था मगर उसके जुल्फों कि हवाएँ मजबूर कर देती थी रुकने को। उसकी मतबाली चाल का ही कमाल था कि मैं अकेला नही मेरे साथ भी कई दिल एक साथ धड़कने लगे थे। वो भी अब कदम से कदम मिलाने लगे थे। उसका चलते-चलते रुक जाना और फिर मुड़कर पीछे देखना हमारे लिए गजब का एहसास था। मानो थोड़े समय के लिए दिल उसी के पास था। वो चलती गयी हम भी चलते गये। कुछ दूर जाकर उसने कदमों को रोका ऐसे एक प्रेमिका रुकती है अपने आशिक के लिए जैसे। वहाँ मै नही था, हम सभी थे। उसके एक नही कई चाहने वाले थे। खुद को निकाला सबसे आगे और पहुँचा उसके समीप। बस पहुँचने वाला ही था उसतक एक अजनबी ने दे दी दस्तक। वो कोई और नही था उसकी अपनी धड़कन , अपना प्यार अपना संसार उसका कुणाल था। मुझे खुद को वही रोकना पड़ा, मगर झुकना पड़ा उन दोस्तों के आगे जिनको छोड़ निकले थे आगे। आज भी याद आती है वो मतवाली चाल।
विकास कुमार

Saturday, January 16, 2010

अँग्रेजी और इसमें उलझते लोग

दोस्तों अँग्रेज तो चले गए मगर एक ऐसी निशानी छोड़ गए जो दिन-प्रतिदिन और गहरा होता जा रहा है। अँग्रेजों के इस निशानी को हम भारतीयों ने जीवन का वो हिस्सा बना लिया है, जिसके बिना शायद अब काम नही चल सकता। वास्तविकता भी यही है कि आज अँग्रेजी हर आम आदमी के लिए एक जरुरी माध्यम हो गया है। वैश्वीकरण के इस दौर में सिमटते संसार को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, कि वो दिन दूर नही जब इस पूरे विश्व में केवलमात्र अँग्रेजी ही राज करेगा।

बात भारत देश कि करे तो अँगेजी भाषा कि हुकूमत यहाँ जोरों पर है। कहने को तो हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है, मगर अब यह बस कहने तक ही सीमित दिखाई पड़ रहा है। चाहे वह सदन कि कारवाई हो या फिर न्यायालय में केशों कि सुनवाई अँगेजी का ही बोलबाला है।

भारत में जिन विभागों और लोगों के लिए हिन्दी द्वितीय भाषा होती जा रही है, उनके इंग्लिश भी कुछ कम झमेला उत्पन्न नही कर रहे हैं। अँग्रेजी के इसी उलझन से रु-ब-रु होने का मौका तब मिला जब राजधानी दिल्ली के मेट्रो में सफर शुरु किया। आय दिन एक दो बार ऐसी घटनाएँ हो ही जाती है, जिसको सुनकर और देखकर रहा नहीं जाता।

मेट्रो कि रेलमपेल भीड़ में यू इडियट ब्लडी लेडी, हू द हेल यू आर, वाहट विल यू डू जैसे कुछ अँग्रेजी गालियां तो आम बात है। हाँ अँग्रेजी में उलझने में दोनों पक्षों को एक फायदा जरुर मिलता है, वह है आस-पास खड़े हमारे जैसे लोगों का कुछ ना समझ पाना। अँग्रेजी समझने वाले या फिर बोलने वाले को बीच-बचाव करता देख थोड़ा-बहुत समझ में आ जाता है कि मामला गड़बड़ है। वरना हमारे लिए "भैंस के आगे बीन बजाए" वाली कहावत हो जाती है।

खैर जो भी हो अंतत: सबकुछ समझ में आ ही जाता है। मगर अँग्रेजी में उलझते लोगों को देखकर बड़ा मजा आता है।
विकास कुमार।

बेदर्द मौसम

बेदर्द मौसम कि सर्द हवाएँ क्यों कँपकपा रहे हो उन मासूमों को? क्यों रुला रहे हो उन आँखों को? तुम्हारी शीतलता को अपनी सांसों से गर्म करने वाले उन चहेरे से जाकर पूछो कैसे बिताते हैं वो एक-एक पल खुले आसमान के नींचे जहाँ मनुष्य क्या परिंदे भी रहते हैं अपने को समीटे । उनके थरथराहट से घबराकर दिल करता है, छूँपा लूँ उन्हे किसी कोने में। मगर तुझे तो मजा आता है उनके रोने में। तुम क्यों नही पहुँचते उन महलों में, उन घरों में जिसकी शीतलता भी उनके अपने हो जाते हैं। लाख कोशीश के बावजूद भी तुम दरवाजे नही लांघ पाते हो। अपनी ठंडक का एहसास कभी उन्हे भी जताओं। उनके पास जाकर तुम भी इतराओं। उन गरीब, बेसहारा, और लाचार को अब ना कँपकाओं। तुम्हारे इस बेदर्दी को भी वो इस तरह सहते हैं, ऐसी सजा में भी वो हंसते हैं। अपने को इतना निष्ठुर ना बनाओ, थोड़ी सी कृपा करो, अब अपनी जिद्द छोड़ो। जीने उन्हे भी जो दुबके पड़े हैं तेरे डर से, लिपटे पड़े हैं पतली चादर से, खुद को ढकने में लगे हैं माँ के आँचल से। कृपा करो उनलोगों पर भी यही विनती है तुमसे।

विकास कुमार

हम नही सुधरेंगे

हम नही सुधरेंगे। कतई नही सुधरेंगे। और सुधरे भी क्यों? सुधरकर क्या होगा? मेरे सुधर जाने से क्या पूरी दिल्ली सुधर जायेगी? और वैसे भी आज सुधरे का जमाना कहा रहा? जो सुधरे भी हैं वो रो रहे हैं और जो सुधरने कि कोशिश भी कर रहे हैं, उन्हे आप रुला रहे हो। अगर आप ऐसे ही हमारे साथ हाथ बँटाते रहे तो तो वो दिन दूर नही जब हम आपके सहयोग का उपयोग आपके स्थिति को बिगाड़ने में कर दे। हमे सुधारकर अपको क्या मिलेगा? हमारे सुधरने और बिगड़ने का क्या फर्क पड़ता है? हम तो जैसे थे वैसे ही हैं और ऐसे ही रहना चाहते हैं। मगर बीच-बीच में आपकी चहलकदमी से हमलोग भी परेशान हो जाते हैं और कुछ ज्यादा कर जाते हैं।
आप हैं जो सारा बोझ हमलोग के माथे थोपतें हैं। हम भी परेशान होकर आप ही को लूटते हैं। लूटना भी जरुरी है, लूटेंगे नही तो खायेगें कहाँ से? खायेंगे नही तो खिलायेंगे कहां से? इसलिए हमारी राय में हम जैसे हैं वैसे छोड़ दीजिए। मगर उन सुधरे लोगों कि तरफ गौर कीजिए जो हमसे भी ज्यादा बिगड़े हैं। हम पैसे लूटते हैं और वो इज्जत लूटते हैं। हम घूस खाकर पेट पालते हैं,और वो गोली खिलाकर लूट ले जाते हैं। हम अपने कार्यालयों में बाल नोंचवाते हैं, वो संसद में लोगों का दिल बहलाते हैं। वो महिलाओं का शोषण करके भी मुस्कुराते हैं, और आप बिना कूसूर हमें रुलाते हैं। '
इसलिए हमने भी ठान लिया है। हम नही सुधरेंगे। पहले उन सुधरे लोगों को सुधारिए जो हम बिगड़ों से भी ज्यादा बिगड़ते जा रहे हैं। इसी में आपके और अपके राज्य कि भलाई है।
विकास कुमार