Wednesday, January 27, 2010

तौबा यह मतबाली चाल

सेंडिल के नोकिले हील का ठक-ठक सुनकर दिल धक-धक करने लगता है। उसके हर एक कदम के बाद धड़कने और तेंज हो जाती है। आंखो मे ललक और चेहरे कि दमक अचानक बढ जाती है। धड़कते दिल और दमकते चेहरे के बीच लचकती कमर गजब का असर छोड़ रही थी। फिर क्या था इस असर से मेरा सफर और रोमांचित होता जा रहा था। कई बार तो मेरे कदम उसके एकदम समीप होता था मगर उसके जुल्फों कि हवाएँ मजबूर कर देती थी रुकने को। उसकी मतबाली चाल का ही कमाल था कि मैं अकेला नही मेरे साथ भी कई दिल एक साथ धड़कने लगे थे। वो भी अब कदम से कदम मिलाने लगे थे। उसका चलते-चलते रुक जाना और फिर मुड़कर पीछे देखना हमारे लिए गजब का एहसास था। मानो थोड़े समय के लिए दिल उसी के पास था। वो चलती गयी हम भी चलते गये। कुछ दूर जाकर उसने कदमों को रोका ऐसे एक प्रेमिका रुकती है अपने आशिक के लिए जैसे। वहाँ मै नही था, हम सभी थे। उसके एक नही कई चाहने वाले थे। खुद को निकाला सबसे आगे और पहुँचा उसके समीप। बस पहुँचने वाला ही था उसतक एक अजनबी ने दे दी दस्तक। वो कोई और नही था उसकी अपनी धड़कन , अपना प्यार अपना संसार उसका कुणाल था। मुझे खुद को वही रोकना पड़ा, मगर झुकना पड़ा उन दोस्तों के आगे जिनको छोड़ निकले थे आगे। आज भी याद आती है वो मतवाली चाल।
विकास कुमार

Saturday, January 16, 2010

अँग्रेजी और इसमें उलझते लोग

दोस्तों अँग्रेज तो चले गए मगर एक ऐसी निशानी छोड़ गए जो दिन-प्रतिदिन और गहरा होता जा रहा है। अँग्रेजों के इस निशानी को हम भारतीयों ने जीवन का वो हिस्सा बना लिया है, जिसके बिना शायद अब काम नही चल सकता। वास्तविकता भी यही है कि आज अँग्रेजी हर आम आदमी के लिए एक जरुरी माध्यम हो गया है। वैश्वीकरण के इस दौर में सिमटते संसार को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, कि वो दिन दूर नही जब इस पूरे विश्व में केवलमात्र अँग्रेजी ही राज करेगा।

बात भारत देश कि करे तो अँगेजी भाषा कि हुकूमत यहाँ जोरों पर है। कहने को तो हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है, मगर अब यह बस कहने तक ही सीमित दिखाई पड़ रहा है। चाहे वह सदन कि कारवाई हो या फिर न्यायालय में केशों कि सुनवाई अँगेजी का ही बोलबाला है।

भारत में जिन विभागों और लोगों के लिए हिन्दी द्वितीय भाषा होती जा रही है, उनके इंग्लिश भी कुछ कम झमेला उत्पन्न नही कर रहे हैं। अँग्रेजी के इसी उलझन से रु-ब-रु होने का मौका तब मिला जब राजधानी दिल्ली के मेट्रो में सफर शुरु किया। आय दिन एक दो बार ऐसी घटनाएँ हो ही जाती है, जिसको सुनकर और देखकर रहा नहीं जाता।

मेट्रो कि रेलमपेल भीड़ में यू इडियट ब्लडी लेडी, हू द हेल यू आर, वाहट विल यू डू जैसे कुछ अँग्रेजी गालियां तो आम बात है। हाँ अँग्रेजी में उलझने में दोनों पक्षों को एक फायदा जरुर मिलता है, वह है आस-पास खड़े हमारे जैसे लोगों का कुछ ना समझ पाना। अँग्रेजी समझने वाले या फिर बोलने वाले को बीच-बचाव करता देख थोड़ा-बहुत समझ में आ जाता है कि मामला गड़बड़ है। वरना हमारे लिए "भैंस के आगे बीन बजाए" वाली कहावत हो जाती है।

खैर जो भी हो अंतत: सबकुछ समझ में आ ही जाता है। मगर अँग्रेजी में उलझते लोगों को देखकर बड़ा मजा आता है।
विकास कुमार।

बेदर्द मौसम

बेदर्द मौसम कि सर्द हवाएँ क्यों कँपकपा रहे हो उन मासूमों को? क्यों रुला रहे हो उन आँखों को? तुम्हारी शीतलता को अपनी सांसों से गर्म करने वाले उन चहेरे से जाकर पूछो कैसे बिताते हैं वो एक-एक पल खुले आसमान के नींचे जहाँ मनुष्य क्या परिंदे भी रहते हैं अपने को समीटे । उनके थरथराहट से घबराकर दिल करता है, छूँपा लूँ उन्हे किसी कोने में। मगर तुझे तो मजा आता है उनके रोने में। तुम क्यों नही पहुँचते उन महलों में, उन घरों में जिसकी शीतलता भी उनके अपने हो जाते हैं। लाख कोशीश के बावजूद भी तुम दरवाजे नही लांघ पाते हो। अपनी ठंडक का एहसास कभी उन्हे भी जताओं। उनके पास जाकर तुम भी इतराओं। उन गरीब, बेसहारा, और लाचार को अब ना कँपकाओं। तुम्हारे इस बेदर्दी को भी वो इस तरह सहते हैं, ऐसी सजा में भी वो हंसते हैं। अपने को इतना निष्ठुर ना बनाओ, थोड़ी सी कृपा करो, अब अपनी जिद्द छोड़ो। जीने उन्हे भी जो दुबके पड़े हैं तेरे डर से, लिपटे पड़े हैं पतली चादर से, खुद को ढकने में लगे हैं माँ के आँचल से। कृपा करो उनलोगों पर भी यही विनती है तुमसे।

विकास कुमार

हम नही सुधरेंगे

हम नही सुधरेंगे। कतई नही सुधरेंगे। और सुधरे भी क्यों? सुधरकर क्या होगा? मेरे सुधर जाने से क्या पूरी दिल्ली सुधर जायेगी? और वैसे भी आज सुधरे का जमाना कहा रहा? जो सुधरे भी हैं वो रो रहे हैं और जो सुधरने कि कोशिश भी कर रहे हैं, उन्हे आप रुला रहे हो। अगर आप ऐसे ही हमारे साथ हाथ बँटाते रहे तो तो वो दिन दूर नही जब हम आपके सहयोग का उपयोग आपके स्थिति को बिगाड़ने में कर दे। हमे सुधारकर अपको क्या मिलेगा? हमारे सुधरने और बिगड़ने का क्या फर्क पड़ता है? हम तो जैसे थे वैसे ही हैं और ऐसे ही रहना चाहते हैं। मगर बीच-बीच में आपकी चहलकदमी से हमलोग भी परेशान हो जाते हैं और कुछ ज्यादा कर जाते हैं।
आप हैं जो सारा बोझ हमलोग के माथे थोपतें हैं। हम भी परेशान होकर आप ही को लूटते हैं। लूटना भी जरुरी है, लूटेंगे नही तो खायेगें कहाँ से? खायेंगे नही तो खिलायेंगे कहां से? इसलिए हमारी राय में हम जैसे हैं वैसे छोड़ दीजिए। मगर उन सुधरे लोगों कि तरफ गौर कीजिए जो हमसे भी ज्यादा बिगड़े हैं। हम पैसे लूटते हैं और वो इज्जत लूटते हैं। हम घूस खाकर पेट पालते हैं,और वो गोली खिलाकर लूट ले जाते हैं। हम अपने कार्यालयों में बाल नोंचवाते हैं, वो संसद में लोगों का दिल बहलाते हैं। वो महिलाओं का शोषण करके भी मुस्कुराते हैं, और आप बिना कूसूर हमें रुलाते हैं। '
इसलिए हमने भी ठान लिया है। हम नही सुधरेंगे। पहले उन सुधरे लोगों को सुधारिए जो हम बिगड़ों से भी ज्यादा बिगड़ते जा रहे हैं। इसी में आपके और अपके राज्य कि भलाई है।
विकास कुमार