दोस्तों गर्व से कहता हूँ कि मैं दिल्ली में रहता हूँ। मगर कभी-कभी दिल्ली के दर्द से रोता भी हूँ। वैसे दर्द तो रोज देती है ये, मगर झलने का आदि हो चुका हूं। हाँ, मेरे इस दर्द कि दवा उपलब्ध तो है, मगर उसका ठीक तरीके से संचालन और उपयोग नही है। यह भी मानता हूं कि मेरे साथ दिल्ली के अनगिनत लोग इस दर्द से पीड़ित हैं। मगर पारिवारिक जिम्मेंदारी और काम का बोझ उस दर्द को भी दबा देते हैं। आप खुद ही देख लीजिए न सुबह-सुबह उठकर तैयार होता हूँ। काम पर जाना होता है, तो पेट में भी कुछ डालना जरुरी होता है। घर से निकलते ही रेलगाड़ी कि तरह स्पीड पकड़ता हूँ। डर लगता है और चिंता भी होती है कि कहीं बस ना निकल जाए। कंधे पर बैग और हाथ में फाइल लेकर दिल्ली के बसों में चढना चुनौती से कम नही है। किसी तरह बस में सवार तो हो ही जाता हूं। मगर अंदर जो हालत होती है,उसे लिखने में भी दर्द महसूस हो रहा है। बस के अंदर भीड़ में दबे खुद को जितना निकालने का प्रयास करता हूं उतना ही अंदर चला जाता हूं। आखिरकार किसी तरह जगह पाकर साइड में खड़ा हो ही जाता हूं। कभी-कभी कुछ ऐसे भी लोग मिलते हैं जो इस हालत में भी मलहम कि जगह जगह और दर्द देकर चले जाते हैं। भीड़ का फायदा उठाकर कितनों के जेब साफ कर जाते हैं।
दिल्ली में ट्रैफिक जो दर्द देता है पूछिए मत। बस में घंटो एक पैर के सहारे खड़ा रहना पड़ता है। इसकी वजह से आँफिस लेट पहुँचने पर बाँस का दर्द अलग सहना पड़ता है। सच कहूं तो जितने दर्द यहाँ झलने पड़ते हैं उतनों को लिखने में भी हाथ में दर्द शुरु हो जायेगा। मगर दर्द है कि लिखने को मजबूर किया जा रहा है। ए0 टी0 एम से पैसे निकालने हों, ट्रेन कि टिकट कटानी हों, मडर डेयरी से दूध लाना हो, भंडारे में प्रसाद खाना हो, बैंको में अकाउन्ट खुलबाना हो, सर से साइन करवाना हो, हाँस्पीटल में ईलाज करवाना हो, पुलिस थाने में F IR लिखवाना हो, मेट्रो में मन बहलाना हो, स्कूलों में एडमीशन करवाना हो, गाड़ियों में पेट्रोल डलवाना हो, पीने का पानी लाना हो, होटलों में खाना खाना हो, गैस सिलेण्डर भरवाना हो, बिजली-पानी आदि का बिल चुकाना हो। सभी जगह दर्द ही दर्द है चाहे वह लाईन में खड़े होने का दर्द है, बात-विवाद का दर्द है, घूसखोरी और धौस का दर्द है।
दिल्ली में इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए ज़रुरी है कि बिना किसी डाक्टर का इंतजार किए हमें इलाज खुद शुरु कर देनी चाहिए। ताकि हमें भी अपनी काबिलियत पर गर्व हो और दूसरों को असलियत का पता चले।
विकास कुमार।
दिल्ली में ट्रैफिक जो दर्द देता है पूछिए मत। बस में घंटो एक पैर के सहारे खड़ा रहना पड़ता है। इसकी वजह से आँफिस लेट पहुँचने पर बाँस का दर्द अलग सहना पड़ता है। सच कहूं तो जितने दर्द यहाँ झलने पड़ते हैं उतनों को लिखने में भी हाथ में दर्द शुरु हो जायेगा। मगर दर्द है कि लिखने को मजबूर किया जा रहा है। ए0 टी0 एम से पैसे निकालने हों, ट्रेन कि टिकट कटानी हों, मडर डेयरी से दूध लाना हो, भंडारे में प्रसाद खाना हो, बैंको में अकाउन्ट खुलबाना हो, सर से साइन करवाना हो, हाँस्पीटल में ईलाज करवाना हो, पुलिस थाने में F IR लिखवाना हो, मेट्रो में मन बहलाना हो, स्कूलों में एडमीशन करवाना हो, गाड़ियों में पेट्रोल डलवाना हो, पीने का पानी लाना हो, होटलों में खाना खाना हो, गैस सिलेण्डर भरवाना हो, बिजली-पानी आदि का बिल चुकाना हो। सभी जगह दर्द ही दर्द है चाहे वह लाईन में खड़े होने का दर्द है, बात-विवाद का दर्द है, घूसखोरी और धौस का दर्द है।
दिल्ली में इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए ज़रुरी है कि बिना किसी डाक्टर का इंतजार किए हमें इलाज खुद शुरु कर देनी चाहिए। ताकि हमें भी अपनी काबिलियत पर गर्व हो और दूसरों को असलियत का पता चले।
विकास कुमार।