Sunday, February 26, 2012

मेरी धड़कने मुझसे यही कहती है।

आधी रात को जब सुनसान गलियों से गुजरता हूं,
तो मुझे मेरी धड़कनों की पूरी आवाज सुनाई पड़ती है।
रात के अंधेरे में जब सोच की गहराइयों में उतरता हूं,
तो सच्चाई से कदम मिलाते हुए भरोसे की चादर बुनता हूं।
समय जो मुझसे आगे होता है,
तन्हाई जो मुझे रोके रखती है।
यादें जो भूला देती है सारे ग़म,
मैं इन सब के बीच खुद को ढ़ोता रहता हूं।
सोचता रहता हूं, खुद को कोसता रहता हूं।
रात के अंधेरे में जब सोच की गहराइयों में उतरता हूं।
मौसम की अंगडाईयों में अपनी थकावट खोता हूं।
फिर अचानक दिखती है मुझे रौशनी की झिलमिलाहट,
अंधेरे को पीछे छोड़ मैं अब उजाले में होता हूं।
अब मुझे मेरी धड़कन सुनाई नहीं पडती है,
और ना ही मेरी सोच अब गहराइयों में उतरती है।
सपनों से बाहर आकर जब खुद को निहारता हूं,
अंधेरे में भूल चुके यादों को मैं सवांरता हूं।
जिन्दगी जीने का आलम की कुछ ऐसा है,
इस दुनिया में अब कुछ नहीं पहले जैसा है।
आधी रात को जब सुनसान गलियों से गुजरता हूं,
मेरी धड़कने मुझसे यही कहती है।

Friday, February 10, 2012

जिधर देखो उधर ही शहर है!


एक सज्जन जो गांव से निकलकर शहर को आए थे,

चेहरे पर सादगी और आँखों में सपने ढ़ोकर लाए थे।

थके हुये, झुके हुये अपनी कदमों को रोके हुये,

किसी के इंतजार में खुद को बेकार समझते हुये

इस शहर को मायावी बाज़ार समझते हुये।

हल्की मुस्कान के साथ, देहाती पहचान के साथ।

शहर के भागम-भाग को, दिन हो या रात, धूप हो या बरसात!

डरे हुए, छुपाते खुद को, इस भीड़-भाड़ वाले शहर में बचाते खुद को।

अजीब शहर है! ना नहर है, ना लंबी डगर है!

जिधर देखो उधर ही शहर है!

हमारे गांव में भी एक शहर है मगर वो इस शहर में किधर हैं!

इसी उधेड़बुन में, महीना जून में, वो आये थे, मेरे लिए ठेकुआ और निमकी लाये थें।

कहते हैं एक बार फिर आऊंगा, मगर इस बार अपने शहर को भी लाऊंगा,

जिस शहर में गांव बसता है।

Friday, January 13, 2012

संभलो कि ये नेता हैं

चुनावी बयार में उड़ाते अपने बयानों को,
चुनावी बाजार में लूटाते अपने वादों को।
चुनावी त्योहार में लुभाते मतदाताओं को,
देखो जरा नेताजी के आचार-विचार को।
संभलो कि ये नेता हैं,
जानों कि ये चुनावी अभिनेता हैं।
नापो कि किसका दौर है,
लक्ष्य उसका विकास या कुछ और है!
दबाओ बटन वहीं, जो नेता है सही!
अगर अब भी ना तुम समझ पाओगे,
गलत नेताओं को ही जिताओगे,
ऐसे ही लूटे जाओगे।

विकास कुमार

Wednesday, August 25, 2010

कल्माडी की कामयाबी।


दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल के सफलतापूर्वक होने और ना होने की संभावनाओं के बीच बना पूल कब धराशायी होकर गिर जाये इसकी आशंका हम सभी को है। इस खेल के शुरु होने से पहले ही जो गेम सुरेश कल्माडी एण्ड ग्रुप ने खेला है, वह जगज़ाहिर है। देश के गौरव और शान का प्रतीक राष्ट्रमंडल खेल आज इसी देश के लिये चुनौती और आन का सवाल बन गया है।
गौरतलब है कि ऐसे आयोजन को कराने के लिये विस्तृत और लंबी नीति की आवशयक्ता होती है। राष्ट्रमंडल खेल की मेजबानी का टाँस जितकर आयी बीजेपी सरकार मैदान में आने से पहले ही बोल्ड हो गयी। और अब कांग्रेस सरकार ग्राउंड में आने के बजाये गीले पिच को सुखाने में लगी हुई है।
इधर अभी भी कई स्टेडियमों में आधे से अधिक काम का होना बाकी है। ऐसे में बारिश का बार-बार होना काम को पूरी तरह से बाधित कर रहा है। खेल शुरु होने के लिये कम होता हर एक दिन अधिक से अधिक सवालों को पैदा कर रहा है।
मगर दूसरी तरफ इन सवालों के पैदा होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है! क्योंकि राष्ट्रमंडल खेल समीति से अध्यक्ष सुरेश कल्माडी के लिए हर सवाल का सिर्फ और सिर्फ एक ही जबाव है "आप चिन्ता ना करे, सबकुछ समय पर हो जायेगा"। कल्माडी जी अगर सबकुछ समय पर ठीक-ठाक हुआ रहता तो आज आपका अधिकार आपके समय के सामने दम नहीं तोड़ता। जरुरत नहीं पड़ती फिर से एक नई टीम का गठन करना।
खैर, चाहे अब जो कुछ भी हो हम सभी को मिलकर अपने राष्ट्र के गौरव को बचाना है, एक भारतीय होने का अधिकार निभाना है।
Vikas kumar

Sunday, August 15, 2010

I need the same freedom.


I am very glad to celebrate this 63rd Independence Day but very sad to remember my childhood days. As this is the law of nature we cross our childhood age and become young. All the responsibilities and formalities come together. At this stage where we keep ourselves busy for arranging bread and butter for survive.

But despite of all these whenever 15th August comes it compels to go in flash back. I would like to describe 15th August celebration during childhood days. 15th August a day, this describes the long salute of great freedom fighters of our country ‘India”.

When I was in primary school it was great excitement to celebrate 15th August. Because, this was the only occasion when I get chance to be in front of audiences with a well prepared speech and a grand salute of Indian flag. The national anthem and the national song which is sung by a group of students was enough to call the crowd towards school. Dramas, cultural programs, national songs, and dance these all performance compelled to stay long in school.

But, gradually I became young and I lost my excitement and the opportunity to celebrate 15th August like that. Are such excitement and enjoyment is possible today this is the question which never gets any answer from any side.

With this great memory wish u a very happy Independence Day.

Monday, April 12, 2010

यादों की रात

अभी भी याद आती है, वो रात,
जब मिले थे हम दोनों एक जगह एक साथ।
पहली मुलाकात थी, अजीब सी बात थी,
तुम्हारा बार-बार शर्माना और शर्माकर नज़रे चुराना,
बना रहा था मुझे एकदम पागल दिवाना।
मैं कुछ देर यूं ही तुम्हे निहारता रहा,
तेरी आँखों में अपना प्यार भरता रहा।
हमने उसी रात एक होने और उम्र भर साथ बिताने का वादा किया था,
बरसों से मन में दबे हुए प्यार का खुलासा किया था,
तुम मेरी हो और बस मेरी ही रहोगी कुछ ऐसा ही साझा किया था।
मगर अब तो बस तेरी यादें हैं मेरे साथ,
न जाने छोड़कर मेझे अकेले चली गई किस दिवाने के साथ!
अभी भी याद आती है वो रात, वो मुलाकात………

विकास कुमार

Friday, March 12, 2010

ख़ाकी से बेखौफ अपराधी

राजधानी दिल्ली सुरक्षा के लिहाज से अन्य राज्यों के मुकाबले बेहतर और सुरक्षित मानी जाती है। यहाँ के प्रशासन की चाक-चौबंद कि चर्चा पूरे देश में होती है। मगर पिछ्ले कुछ महीनों से जिस तरह से राजधानी में लूटेरों, चोर और झपटमारों ने उत्पाद मचा रखा है, उससे यह स्पष्ट होता है कि प्रशासन कहीं न कहीं ढीली पड़ गई है। "आपके लिए, सदैव आपके साथ" का नारा लगाने वाली दिल्ली पुलिस बदमाशों और गूंडों के आगे पूरी तरह से लाचार और बेबस साबित हो रही है। खुलेआम कत्ल हो रहे हैं, बसों में जबरन यात्रियों को लूटा जा रहा है, महिलाओं के साथ बदसलूकी और जबरदस्ती किया जा रहा है, सड़क पर चलती हुई महिलाएं झपटमारों का शिकार हो रही हैं, कारों और घरों में चोरी हो रही है। प्रशासन के लाख कोशिशों के बावज़ूद इनमें कोई कमी नही दिख रही है।
गौरतलब है कि, अपराधियों द्वारा इन सारी वारदातों को अंजाम दिन के उजाले में दिया जा रहा है और प्रशासन है कि गहरी निंद में सोई हुई है। दरअसल अपराधियों द्वारा दिए दिए जा रहे इन अंजामों और घटनाओं के पीछे का कारण उनका खाकी वर्दी से कम होता खौफ और प्रशासन का उनके प्रति लचीला व्यवहार है। अभी हाल ही में दक्षिणी दिल्ली के लाजपत नगर में साई पिकेट पर बदमाशों द्वारा हवलदार के हाथ से वायरलेस का छीनना और फिर मजे से चलता बनना प्रशासन के ढीले हाथ को दर्शाता है। बदमाश कार में सवार थे, फिर भी न तो पुलिस उसका पीछा कर पाई और ना ही गाड़ी का नंबर नोट कर पाई। दूसरी घटना आनंद विहार इलाके कि है जिसमें एक कार सवार युवक बाईक सवार तीन युवकों का पीछा कर रहे थे। उनके बीच गोली चली और सड़क के किनारे खड़े एक व्यक्ति के पांव में जा लगी। हर रोज इस तरह के अनेकों घटनाओं से दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था कि पोल तो खुल ही रही है साथ ही साथ पुख्ता सुरक्षा के दावों पर भी दाग लग रहा है।
यह बात सोचने योग्य है कि, आगामी कुछ ही महीनों बाद दिल्ली में राष्ट्र्मंडल खेलों का आयोजन होना है। और अगर इसी तरह से अपराधियों के हौसले बुलंद रहे तो यह कहना गलत नही होगा कि अपराधी प्रशासन के साथ-साथ दिल्ली सरकार के साख को भी हशिए पर न रख दे।
विकास कुमार